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कविता

कविता की रंगशाला

बेल्‍ला अख्‍मादूलिना


अद्भुत है यह रंगशाला कविता की!
ढँक लो अपने को इस निद्रालु मखमल में,
मैं कौन होती हूँ यहाँ, यह तो विलक्षण प्रतिभा
जुटी है किन्‍हीं दूसरे देवताओं के काम में।

मैं तो बस गँवार हूँ जिसे बुलाया गया है बाहर से
इस पराये काम को पूरा करने के लिए,
मुझे कोई इच्‍छा नहीं!
पर तारों के पीछे दूर कहीं
अपने हाथों में संगीत निर्देशक ले चुका है डरावनी छड़ी।

अद्भूत है यह रंगशाला कविता की,
हमें तय करना है क्‍या–कौन-सा संगीत सुनायेंगे आज?
हमारे संगीत का यह आततायी प्रेमी
सुनता नहीं निर्देश किसी भी तरह के।

क्‍या आदेश दे रहा है वह?
कहीं है क्‍या कोई उपाय
उसके हिंस्र प्रेम से बच निकलने के?
अनपढ़ों को यह अलौकिक निष्‍पाप प्रतिभा
किस तरह से दे रही आदेश!

अद्भु है यह रंगशाला कविता की,
कोई नहीं यहाँ जिससे पूछूँ। जवाब के बदले
मिलती है यंत्रणा जब रोने के लिए मुँह
और बोलने के लिए खुलते हैं होंठ।

नि:संदेह, दीये छिपा नहीं पाते आग,
विदा लेती हूँ ईश्‍वर के इस जुए से,
संक्षेप में-जीवन और मृत्‍यु
खेल चुके हैं कविता का यह 
अद्भु नाटक।

 


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